एक अरसे बाद शिखर तक कोई पहुंच पाया है। आज स्वयं शिखर को इस बात पर बड़ा नाज़ हो रहा है। शिखर को अपने होने का आभास ही अब हुआ है। वरना तो यहां ज़िंदगी वीराने में ही कट रही थी। हरियाली तो जैसे यहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती है। शिखर अपनी बर्फ़ानी सफ़ेद छाती चौड़ी किये यों ही दिन-रात तन कर रहा करता है। उसका जीवन पत्थर के माफ़िक कठोर हो चला है। इतना कठोर, कि कभी-कभी उसे पिघल जाने का मन करता है। मन करता है कि वो भी कभी नदियों की तरह इठलाए, बलखाए। मन करता है, कि वो बह के मैदानी इलाकों के उन खेतों में जाए, जहां हरी-भरी फसलें लहलहाया करती हैं। जहां नमी पाकर कोंपलें फूटा करती हैं।
खैर इन बातों को शिखर पर पहुंचने वाला कभी नहीं समझ पाएगा। आज उसकी जीत हुई है, वो तो जश्न मनाएगा।
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