अनकहा

शामों को कौन कहता है कि वे क्षितिज पर अपनी नारंगी छटा बिखेरें? कौन सूरज को आदेश देता है कि वह अपनी विदाई को सुर्ख रंगों में रंग दे? हवा को कौन बताता है कि वह मंद होते प्रकाश में धीमे-धीमे बहने लगे, और पत्तों को कौन सिखाता है कि वे हल्की सरसराहट के साथ इस विदाई गीत में अपना स्वर जोड़ दें? क्या कभी किसी ने जुगनुओं को रोशन होने की आज्ञा दी? या किसी ने चाँद से कहा कि वह रात की चादर में चुपचाप मोती-सा झिलमिलाने लगे? और इंद्रधनुष? वह भी तो स्वतः प्रकट होता है, जब बूंदों में सूरज की किरणें घुलती हैं। क्या किसी ने उसे बुलाने का साहस किया? क्या कभी कोई उसे कह पाया कि अपने रंगों को समेटकर कहीं और चला जाए? वह अपनी शर्तों पर आता है, अपनी मर्जी से दमकता है, और जब उसे उचित लगे, अदृश्य हो जाता है।

ये सब प्रकृति के नियमों से बंधे हैं, एक अनसुने संगीत की धुन पर झूमते हुए, बिना किसी निर्देश, बिना किसी आदेश। प्रकृति सृजनहार है, लेकिन उसे सिर्फ अनुभव किया जाता है, उसकी लीला में खोया जाता है। जैसे संध्या की लालिमा, जैसे रात के जुगनू, जैसे इंद्रधनुष की क्षणभंगुर आभा—सब अपने समय पर, अपनी धुन में, उस अनकहे का पालन करते हैं।

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