हमारे इर्द-गिर्द हर समय असंख्य कहानियाँ बन रही होती हैं। इनका अपना ही एक रास्ता, अपना ही एक कारवां होता है। रास्ते-भर वे बनती-बिगड़ती रहती हैं। जब कभी वे पहली बार कही जाती हैं, तब किसी को नहीं पता होता कि ये कहानियाँ कितनी दूर तक फैलेंगी।
जैसे गंगोत्री को नहीं पता रहता, कि गंगा आगे चलकर कहां-कहां बहेगी। कितने-कितनों का उद्धार करेगी, कितनों के संहार की साक्षी बनेगी। उसे तो बस फूट जाना होता है। तब, जब बर्फ़ की चट्टानें अब और बर्फ़ बनकर नहीं रह सकतीं। तब, जब गर्मी अपनी पूरी ताकत से उसको पिघला देना चाहती है। फिर जब वो बहती है, तो न जाने कितनी और कहानियाँ संग हो लेती हैं। उसके प्रवाह में न जाने कितने किरदार घुलते-मिलते जाते हैं। और फिर एक दिन यही कहानियाँ अपने तमाम किरदारों के साथ अथाह समुद्र में समाहित हो जाती हैं। हमेशा के लिए।
Category: विराट विचार
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कहानियाँ
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समय नहीं रहेगा
कोई दसियों बरस बाद शहर को क़रीब से देखने निकला। ग़ौर किया तो पाया कि घरों के बरामदे गुम हो चले हैं। और उन बरामदों में दोपहर के वक्त पड़ने वाली वो मझली-सी धूप भी। अब वहां छांव ही छांव है। अंधेरे का आभास न हो, इसके लिए एक छद्म रोशनी कर रखी है।
वक्त-बेवक्त मिसालें देते लोग भी अब वहां नहीं बैठते। वो सारी बातें अब नहीं होती जो किसी ज़माने में सुकून दे जाती थीं। दीवारों पर वो चाबी वाली घड़ियाँ भी अब नहीं रहीं, जो समय को बखूबी बांधे रख सकती थीं। अब समय फिसलता ही दिखता है।
विकास अच्छा है। हमारे लिए है। लेकिन शायद हम इस एक चीज़ पर ध्यान ही नहीं दे रहे – समय के फिसलते जाने की समस्या पर। हो सकता है कि एक दिन हमारे पास सब कुछ होगा, लेकिन समय नहीं रहेगा।
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अनकहा
शामों को कौन कहता है कि वे क्षितिज पर अपनी नारंगी छटा बिखेरें? कौन सूरज को आदेश देता है कि वह अपनी विदाई को सुर्ख रंगों में रंग दे? हवा को कौन बताता है कि वह मंद होते प्रकाश में धीमे-धीमे बहने लगे, और पत्तों को कौन सिखाता है कि वे हल्की सरसराहट के साथ इस विदाई गीत में अपना स्वर जोड़ दें? क्या कभी किसी ने जुगनुओं को रोशन होने की आज्ञा दी? या किसी ने चाँद से कहा कि वह रात की चादर में चुपचाप मोती-सा झिलमिलाने लगे? और इंद्रधनुष? वह भी तो स्वतः प्रकट होता है, जब बूंदों में सूरज की किरणें घुलती हैं। क्या किसी ने उसे बुलाने का साहस किया? क्या कभी कोई उसे कह पाया कि अपने रंगों को समेटकर कहीं और चला जाए? वह अपनी शर्तों पर आता है, अपनी मर्जी से दमकता है, और जब उसे उचित लगे, अदृश्य हो जाता है।
ये सब प्रकृति के नियमों से बंधे हैं, एक अनसुने संगीत की धुन पर झूमते हुए, बिना किसी निर्देश, बिना किसी आदेश। प्रकृति सृजनहार है, लेकिन उसे सिर्फ अनुभव किया जाता है, उसकी लीला में खोया जाता है। जैसे संध्या की लालिमा, जैसे रात के जुगनू, जैसे इंद्रधनुष की क्षणभंगुर आभा—सब अपने समय पर, अपनी धुन में, उस अनकहे का पालन करते हैं।
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भीड़ में अकेला
भीड़ से भरी इस गली में, अनजाने चेहरों के बीच मैं अकेला चला जा रहा हूँ। चेहरे तो हैं, मगर दिख कहाँ रहे हैं? डूबता सूरज ठीक आँखों की सीध में उतर आया है, उसकी तेज़ रोशनी सबको धुंधला कर रही है। रोशनी से जगमगाती विदेशी सड़कें, अजनबी भाषा में गूंजती आवाज़ें… मगर मन कहीं और अटका है।
अचानक— टक्कर!
कोई मुझसे टकराता है। हल्का-सा झटका लगता है।
“Oh, sorry!” एक आवाज़ कानों में पड़ती है, मगर मेरा ध्यान कहीं और ठहरा हुआ है। जैसे किसी और ज़माने में चला गया हूँ… अपने देश की एक जानी-पहचानी गली में… जहाँ तुम और मैं, घंटों बेपरवाह घूमते थे। जहाँ हर नुक्कड़ पर हमारी हँसी गूँजती थी, हर मोड़ पर कोई अधूरी बात ठहरी हुई थी।आज यहाँ सब कुछ नया है—सड़कें, लोग, भाषा… मगर दिल अब भी वहीं अटका है, उन भूले-बिसरे पलों में।
कुछ रिश्ते वैसे ही अधूरे रह जाते हैं, जैसे कोई अधूरा गीत…
और मैं? बस चलता जा रहा हूँ… इस भीड़ में भी अकेला… -
जीवन ऐसा ही है
और फिर कुछ दिन ऐसे होते हैं, जब आप दुनिया से थोड़ा ऊपर उठना चाहते हैं, किसी ऊंचे स्थान पर जाकर बैठना चाहते हैं, जहां आप वास्तव में दुनिया से उपराम होने का एहसास कर सकते हैं। वहां आपको शहर की सीमाएं भी दिखाई देती हैं, जिन तक पहुंचते-पहुंचते सभी सांसारिक जोड़-तोड़ खत्म हो जाते हैं, और नारंगी आकाश में बस कुछ बिखरे काले बादल दिखाई देते हैं। जहां डूबता सूरज आपको बताता है, कि जीवन ऐसा ही है और आपने अपना काम अच्छी तरह से किया है। यह दृश्य आपको एक मां के आंचल की तरह महसूस होता है, जो आपको उस कड़ी मेहनत के लिए सांत्वना देती है, जो आपने बाजार की व्यस्त सड़कों पर भीड़भाड़ वाली ड्राइविंग परिस्थितियों में खुद को बचा कर चलने के लिए की थी। दुनिया के लिए भले इसमें कोई सराहनीय बात नहीं दिखती होगी, लेकिन वो दृश्य शहर की जानलेवा भगदड़ में से बचकर आपके सकुशल घर लौट आने के बाद मां के द्वारा आपको गले लगा लेने जैसा होता है।
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छोटी-छोटी आज़ादियाँ
लाखों सूर्यास्त देख पाना हम में से किसी के बस की बात नहीं है। एक समय आएगा, जब हम थक चुके होंगे, हार चुके होंगे। हम अलविदा कहना चाहेंगे, इस उसूलवादी प्रकृति को, जो सूरज के लगातार उदय और अस्त होने के अपने उसूल से तब तक भी टस से मस न हुई होगी। हम प्रकृति के इस चक्र से मुक्त हो जाना चाहेंगे, और वहाँ जाना चाहेंगे, जहां ज़िंदगियाँ निर्बाध रूप से पनप रही होंगी। जहां ऐसे कोई नियम-कायदे नहीं होंगे, कि दिन के बाद रात ही हो। ऐसे किसी जहान में प्रकृति काफ़ी लचीली होगी, हमें भरपूर आज़ादियाँ देगी, अपनी जटिलताओं में बांधेगी नहीं। वो बस हमारे होने भर को तवज्जो देगी। हमें मनमर्जियों से उमड़ जाने को कहेगी।
कुछ भी हो, हमारी प्रार्थना तो फिर भी यही रहेगी, कि हम में से हर एक, अनगिनत सूर्यास्त देख पाने का साहस ले कर चले। उसूलवादी प्रकृति को अपनाए, और सूरज के लगातार उदय और अस्त होने के बीच ही अपनी छोटी-छोटी आज़ादियाँ ढूंढ लिया करे।
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वो तो जश्न मनाएगा
एक अरसे बाद शिखर तक कोई पहुंच पाया है। आज स्वयं शिखर को इस बात पर बड़ा नाज़ हो रहा है। शिखर को अपने होने का आभास ही अब हुआ है। वरना तो यहां ज़िंदगी वीराने में ही कट रही थी। हरियाली तो जैसे यहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती है। शिखर अपनी बर्फ़ानी सफ़ेद छाती चौड़ी किये यों ही दिन-रात तन कर रहा करता है। उसका जीवन पत्थर के माफ़िक कठोर हो चला है। इतना कठोर, कि कभी-कभी उसे पिघल जाने का मन करता है। मन करता है कि वो भी कभी नदियों की तरह इठलाए, बलखाए। मन करता है, कि वो बह के मैदानी इलाकों के उन खेतों में जाए, जहां हरी-भरी फसलें लहलहाया करती हैं। जहां नमी पाकर कोंपलें फूटा करती हैं।
खैर इन बातों को शिखर पर पहुंचने वाला कभी नहीं समझ पाएगा। आज उसकी जीत हुई है, वो तो जश्न मनाएगा।