लाखों सूर्यास्त देख पाना हम में से किसी के बस की बात नहीं है। एक समय आएगा, जब हम थक चुके होंगे, हार चुके होंगे। हम अलविदा कहना चाहेंगे, इस उसूलवादी प्रकृति को, जो सूरज के लगातार उदय और अस्त होने के अपने उसूल से तब तक भी टस से मस न हुई होगी। हम प्रकृति के इस चक्र से मुक्त हो जाना चाहेंगे, और वहाँ जाना चाहेंगे, जहां ज़िंदगियाँ निर्बाध रूप से पनप रही होंगी। जहां ऐसे कोई नियम-कायदे नहीं होंगे, कि दिन के बाद रात ही हो। ऐसे किसी जहान में प्रकृति काफ़ी लचीली होगी, हमें भरपूर आज़ादियाँ देगी, अपनी जटिलताओं में बांधेगी नहीं। वो बस हमारे होने भर को तवज्जो देगी। हमें मनमर्जियों से उमड़ जाने को कहेगी।
कुछ भी हो, हमारी प्रार्थना तो फिर भी यही रहेगी, कि हम में से हर एक, अनगिनत सूर्यास्त देख पाने का साहस ले कर चले। उसूलवादी प्रकृति को अपनाए, और सूरज के लगातार उदय और अस्त होने के बीच ही अपनी छोटी-छोटी आज़ादियाँ ढूंढ लिया करे।