कोई दसियों बरस बाद शहर को क़रीब से देखने निकला। ग़ौर किया तो पाया कि घरों के बरामदे गुम हो चले हैं। और उन बरामदों में दोपहर के वक्त पड़ने वाली वो मझली-सी धूप भी। अब वहां छांव ही छांव है। अंधेरे का आभास न हो, इसके लिए एक छद्म रोशनी कर रखी है।
वक्त-बेवक्त मिसालें देते लोग भी अब वहां नहीं बैठते। वो सारी बातें अब नहीं होती जो किसी ज़माने में सुकून दे जाती थीं। दीवारों पर वो चाबी वाली घड़ियाँ भी अब नहीं रहीं, जो समय को बखूबी बांधे रख सकती थीं। अब समय फिसलता ही दिखता है।
विकास अच्छा है। हमारे लिए है। लेकिन शायद हम इस एक चीज़ पर ध्यान ही नहीं दे रहे – समय के फिसलते जाने की समस्या पर। हो सकता है कि एक दिन हमारे पास सब कुछ होगा, लेकिन समय नहीं रहेगा।
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