भीड़ में अकेला

भीड़ से भरी इस गली में, अनजाने चेहरों के बीच मैं अकेला चला जा रहा हूँ। चेहरे तो हैं, मगर दिख कहाँ रहे हैं? डूबता सूरज ठीक आँखों की सीध में उतर आया है, उसकी तेज़ रोशनी सबको धुंधला कर रही है। रोशनी से जगमगाती विदेशी सड़कें, अजनबी भाषा में गूंजती आवाज़ें… मगर मन कहीं और अटका है।

अचानक— टक्कर!
कोई मुझसे टकराता है। हल्का-सा झटका लगता है।
“Oh, sorry!” एक आवाज़ कानों में पड़ती है, मगर मेरा ध्यान कहीं और ठहरा हुआ है। जैसे किसी और ज़माने में चला गया हूँ… अपने देश की एक जानी-पहचानी गली में… जहाँ तुम और मैं, घंटों बेपरवाह घूमते थे। जहाँ हर नुक्कड़ पर हमारी हँसी गूँजती थी, हर मोड़ पर कोई अधूरी बात ठहरी हुई थी।

आज यहाँ सब कुछ नया है—सड़कें, लोग, भाषा… मगर दिल अब भी वहीं अटका है, उन भूले-बिसरे पलों में।
कुछ रिश्ते वैसे ही अधूरे रह जाते हैं, जैसे कोई अधूरा गीत…
और मैं? बस चलता जा रहा हूँ… इस भीड़ में भी अकेला…

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